नई दिल्ली – प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में बताने के दिल्ली हाईकोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने चुनौती दी है। अपने समक्ष ही सोमवार को दाखिल याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि प्रधान न्यायाधीश कार्यालय की सूचनाएं संवेदनशील प्रकृति की होती हैं और उनके खुलासे से न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को नुकसान हो सकता है। दिल्ली हाईकोर्ट ने 12 जनवरी को दिए फैसले में प्रधान न्यायाधीश कार्यालय को आरटीआई कानून के दायरे में और वांछित सूचनाएं देने का ज़िम्मेदार बताया था।
प्रधान न्यायाधीश के.जी बालकृष्णन एवं अन्य न्यायाधीशों से सलाह-मशविरे के बाद दाखिल अपनी याचिका में सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री ने हाईकोर्ट के फैसले को रद करने की मांग की है। इसमें तर्क दिया गया है कि संवैधानिक प्रक्रिया में न्यायाधीशों की भूमिका अनूठी है और उन्हें किसी भी तरह के बाहरी दबाव से बचाना जरूरी है। इसलिए न्यायाधीशों के आचरण को सार्वजनिक बहस का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। याचिका एक माह पहले ही तैयार कर ली गई थीए जिसे सोमवार को अधिव1ता देवदत्त कामत ने अदालत में पेश किया। अटॉर्नी जनरल जीई वाहनवटी इसकी पैरवी करेंगे।
दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एपी शाह की अध्यक्षता वाली पूर्ण पीठ ने जनवरी में सुप्रीम कोर्ट की उस याचिका को खारिज कर दिया थाए जिसमें कहा गया था कि चीफ जस्टिस के कार्यालय को आरटीआई के दायरे में लाने से न्यायिक स्वतन्त्रता का अतिक्रमण होगा। हाईकोर्ट ने कहा था कि न्यायिक स्वतन्त्रता किसी न्यायाधीश का निजी विशेषाधिकार नहींए बल्कि एक ज़िम्मेदारी है। यह फैसला प्रधान न्यायाधीश केजी बालकृष्णन के लिए झटके की तरह था जो कह रहे थे कि उनका कार्यालय आरटीआई के दायरे में नहीं आता है और वह न्यायाधीशों की संपत्ति के ब्योरे जैसी सूचनाएं साझा नहीं कर सकते। गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत के एक न्यायाधीश को छोड़कर प्रधान न्यायाधीश सहित अन्य न्यायाधीशों ने दो नवंबर 2009 को स्वेच्छा से अपनी संपत्ति की घोषणा की थी।